आयुर्वेदिक उपचार हिंदी में
आयुर्वेद विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा पद्धति है, जिसे “मदर ऑफ ऑल हीलिंग” भी कहा जाता है। भारत में आयुर्वेद की उत्पत्ति का काल लगभग 5000 साल पहले माना जाता है। यह वैदिक संस्कृति से उत्पन्न हुआ है, और हजारों वर्षों से गुरु शिष्य परंपरा द्वारा इसके अथाह ज्ञान का प्रसार होता चला आ रहा है ।
Meaning of Ayurveda in Hindi
आयुर्वेद “संस्कृत शब्द” है, जो दो शब्दों से मिलकर बना है “आयु + वेद”, जहाँ आयु का अर्थ है, जीवन (जीवन काल या आपका जीवित शरीर) और वेद का अर्थ है, विज्ञान जिसमें ‘आयु ’ के बारे में वर्णन है।
अतः जिस वेद में आयु के बारे में वर्णन हो अथवा जो शास्त्र आयु (Life) की संपूर्ण सत्ता क्या ज्ञान कराता हो उस शास्त्र को आयुर्वेद कहते हैं।
“सीधे शब्दों में, आयुर्वेद का अर्थ है जीवन का विज्ञान या जीवन और दीर्घायु का ज्ञान”। दीर्घायु की कामना करने वाले को आयुर्वेद का ज्ञान करना चाहिए।
आयुर्वेद की परिभाषा Definition of Ayurveda in Hindi
हिता हितं सुखं दुखम आयुस्तस्य हिता हितं।
मानं च तच्च यात्रोक्तम आयुर्वेद सः उच्यते ॥
जिस शास्त्र में हितायु (जीवन के लिए हितकर) अहित आयु ( जीवन के लिए अहितकर अथवा प्रतिकूल) सुख आयु (आरोग्य जीवन) तथा दुख आयु (रोग की अवस्था) इन चार प्रकार की आयु का वर्णन हो। तथा आयु के लिए हितकर अहित कर द्रव्य गुण आदि का वर्णन हो उस शास्त्र को आयुर्वेद कहते हैं।
आयुर्वेद में आयु को धर्म, अर्थ, काम (सुख ), तथा मोक्ष की प्राप्ति का साधन बताया गया है।
आयु क्या है ? What is Ayu in Ayurveda
शरीर इंद्रिय सत्व आत्म संयोगो आयु:॥
आयुर्वेद के अनुसार हमारे मन, आत्मा और इंद्रियों का जितने समय तक शरीर के साथ संयोग रहता है उस समय काल को आयु कहते हैं।
आयुर्वेद में चार प्रकार की आयु बताई गयी हें।
- सुख आयु (शारीरिक व मानसिक रोगों से रहित होने के कारण सुखायु अथवा सुखी जीवन )
- दुख आयु (शारीरिक व मानसिक रोगों के से ग्रस्त होने के कारण दुख आयु अथवा दुखी जीवन )
- हित आयु (अच्छे कर्मों के कारण हितायु)
- अहित आयु (बुरे कर्मों के कारण अहितायु)
शरीर
आयुर्वेद के अनुसार समस्त चेष्टाओं मन, आत्मा व इंद्रिय का आश्रयभूत पंचभौतिक रूप को शरीर कहते हैं। शरीर में ही आत्मा का वास होता है तथा सभी चेष्टाएँ इस शरीर के अधीन होती हैं। शरीर के सभी दोषों के सम अवस्था में होने पर यह शरीर स्वस्थ रहता है तथा विषम अवस्था में होने पर विकार युक्त तो हो जाता है।
इन्द्रिय
इंद्रियां पंचमहाभूत के विषयों का ज्ञान कराती हैं। शरीर को शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन बाह्य विषयों का ज्ञान जिनके द्वारा होता है उन्हें ज्ञान इंद्रियां कहते हैं। इंद्रियां क्रमशः हैं, श्रोत्र (कान), त्वक् (त्वचा), चक्षु (नेत्र), रसना (जीभ) और घ्राण (नासिका)।
मन
इंद्रियों का मन के साथ घनिष्ठ संबंध है जब इंद्रियां अपने विषय का ग्रहण करके मन के साथ संयुक्त होती हैं तो ही हमें उस विषय का ज्ञान प्राप्त होता है। मन का कार्य है मनन करना, अतः मन के अभाव में हमें किसी भी विषय का ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।
मन अतिसूक्ष्म व एक है और यह एक समय में केवल एक विषय का ही ग्रहण कर सकता है।
सत्व रज तम यह मन के गुण हैं, और इन गुणों की शरीर में प्रबलता के कारण प्रत्येक व्यक्ति सात्विक राजसिक अथवा तामसिक प्रकृति का होता है। व्यक्ति का स्वभाव व आचरण भी इन गुणों की प्रबलता के कारण होता है।
आत्मा
चेतना का प्रतीक, शरीर इंद्रियां तथा मन से भी से जो श्रेष्ठ है, वह आत्मा है। इसके संयोग से ही हमारा शरीर चेतन रहता है तथा वियोग से निश्चेष्ट हो जाता है। विकार केवल हमारे शरीर तथा मन में उत्पन्न होते हैं,आत्मा मैं नहीं अतः आत्मा को निर्विकार बताया गया है।
शरीर मन व इंद्रियां जिसके आश्रित होती हैं वह आत्मा है। सुख-दुख इच्छा द्वेष इत्यादि आत्मा के गुण है। आत्मा का कोई स्वरूप आकृति नहीं है, किंतु इसके बिना शरीर चेतन नहीं हो सकता है।
इस प्रकार शरीर इंद्रियां मन आत्मा इन सभी का जब आपस में सहयोग होता है तब जीवन के लक्षण प्रकट होते हैं, और इसे ही आयु कहते हैं।
रोग और आरोग्य
विकारो धातु वैषम्यं साम्यं प्रकृतिरुच्यते।
सुख संग्यक आरोग्यम विकारो दु:ख मेव च॥
आयुर्वेद के अनुसार सुख का नाम ही स्वस्थ (आरोग्य) है और दुख का नाम ही रोग है। जब हमारे शारीरिक दोष वात, पित्त, कफ सम अवस्था में होते हैं तो हम स्वस्थ होते हैं। और जब ये दोष विषम अवस्था में को प्राप्त होते हैं तो हमारी सभी शारीरिक क्रियाएं प्रभावित होती हैं, और शरीर रोगयुक्त हो जाता है।
इसी प्रकार मानसिक रोगों का कारण रज और तम हें, इन में से किसी एक के अधिक प्रभावी होने के कारण हम मानसिक रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं। अतः स्वास्थ्य के लिए हमारे शारीरिक तथा मानसिक दोष सम अवस्था में होना आवश्यक है।
आयुर्वेद का उद्देश्य, Aim of Ayurveda in Hindi
आयुर्वेद के दो मुख्य उद्देश्य हैं।
- स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना।
- रोगी के रोग को दूर करना।
स्वास्थ्य की रक्षा
स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए प्रकृति, देश, काल का विचार करके अनुकूल आहार-विहार, आयुर्वेद में बताई गई दिनचर्या रात्रि, रात्रिचर्या, ऋतुचर्या आदि का पालन करना। मन व इंद्रियों पर नियंत्रण रखना ईर्ष्या, राग, द्वेष, मोह, लोभ आदि से बचना, समय-समय पर शरीर में कुपित दोषों के लिए वमन, विरेचन इत्यादि पंचकर्म करवाना दूषित जल, स्थान, वायु आदि से बचना।
सदवृत व सदाचार का पालन करना, चिकित्सक के उपदेशों का पालन करना वह स्वच्छ वस्त्र, भोजन, वायु आदि सेवन करना, यह सभी स्वास्थ्य रक्षा के उपाय हें।
रोगी के रोग को दूर करना
रोगी के रोग को दूर करने के लिए:
- हेतु (रोग का कारण)
- लिंग (रोग के लक्षण) (signs & symptoms)
- और औषध का ज्ञान आवश्यक है।
इन तीनों का विचार कर रोगी के बल, प्रकृति, सत्त्व आदि के अनुसार व देश, काल का के अनुरूप उचित औषध मात्र देकर रोगी के रोग को दूर किया जाता हैं।
आयुर्वेदिक चिकित्सा: Ayurvedic treatment in Hindi
आयुर्वेद में चिकित्सा तीन प्रकार से की जाती है।
दैवव्यपाश्रय चिकित्सा
जो रोग दोषों से नहीं बल्कि पूर्वजन्मकृत पापों, श्राप इत्यादि से उत्पन्न होते हैं, उनके निराकरण के लिए मंत्र, मणि, औषधि, उपवास, हवन, पूजन, नियम हाथी उपाय किए जाते हैं। उदाहरण के लिए आयुर्वेद में कुष्ठ रोग का कारण पूर्वजन्मकृत पापों को माना गया है।
युक्तिव्यपाश्रय (medicinal treatment)
शारीरिक दोषों से उत्पन्न रोगों को दूर करने के लिए रोगी के बल, प्रकृति, सत्व,आयु तथा देशकाल आदि का विचार करके उचित औषधि प्रदान कर रोग को दूर करना युक्तिव्यपाश्रय चिकित्सा है।
युक्तिव्यपाश्रय चिकित्सा भी तीन प्रकार की होती है।
- अंतः परिमार्जन (internal treatment)
- बहिर परिमार्जन (external treatment)
- शस्त्र प्राणिधान (surgical treatment)
- सत्वावजय (psychological treatment)
मानसिक रोगों को दूर करने के लिए ज्ञान-विज्ञान-धैर्य-स्मृति और समाधि द्वारा मन को एकाग्र करना, अहितकर आहार-विहार आदि से मन को हटाना अथवा परित्याग करना सत्वावजय चिकित्सा है।
आयुर्वेद के त्रिदोष, Vata, Pitta and Kapha in Hindi
आयुर्वेद के अनुसार, मनुष्य सहित संसार का प्रत्येक द्रव्य पाँचभौतिक है, जो पांच मूल तत्वों- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी से मिलकर बना है । और जीवन ब्रह्मांडीय चेतना की एक अनूठी घटना है, जो इन्हीं पांच मूल तत्वों- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी के माध्यम से प्रकट होती है।
आयुर्वेद के अनुसार हमारा शरीर बना है।
१. त्रिदोष, (वात पित्त व कफ)
२. धातुएं, जो हमारे शरीर को बनाती हैं ((रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र/अर्तव)
३. अग्नि, (जो भोजन को पचाने व शरीर को बनाने का कार्य करती है।
५. मल, हमारे शरीर में मौजूद अथवा उत्सर्जी अपशिष्ट पदार्थ (मूत्र, मल और पसीना)
वायु का संयोजन, पित्त-अग्नि और जल का संयोजन, और कफ- जल और पृथ्वी का संयोजन, त्रिदोष कहलाता है। इन्हें हमारे जीवन के तीन स्तंभ ( जिन पर स्वास्थ्य निर्भर है) , शरीर के तीन संगठन या तीन जैविक ऊर्जाएं कहते हैं। इसलिए, आयुर्वेदिक पंचकर्म उपचार पांच तत्वों के उपचार पर आधारित है, इन पांच तत्वों को त्रिदोष (यानी वात, पित्त और कफ) के घटक भी माना जाता है।
प्रत्येक व्यक्ति के अपने संगठन के अनुसार वात, पित्त और कफ इन तीन दोषों जिन्हें प्रकृति भी कहते हें का संगठन होता है। व प्रत्येक व्यक्ति में इन तीनों दोषों का एक अनूठा संतुलन होता है। वात पित्त व कफ का यह संतुलन स्वाभाविक क्रम है। जब यह दोष संतुलन बिगड़ता है, तो यह असंतुलन पैदा करता है, जो एक विकार (रोग) है।
आरोग्य स्वस्थ है व रोग विकार है। जब इन तीनों दोषो में से किसी में भी असंतुलन (जो की हमारी अस्वस्थ जीवन शैली, वीरुध आहार-विहार, आचार विचार से) उत्पन्न होता है, तो मनुष्य को रोग हो जाते हें।
वात पित्त व कफ को दोष इसलिए कहते हें क्यूँकि ये प्राकृतिक अवस्था (सम अवस्था) में आरोग्य (स्वास्थ्य) प्रदान करते हें व विषम अवस्था में विकार (रोग) उत्पन्न करते हें ।
Definition of health according to Ayurveda in hindi, आयुर्वेद के अनुसार स्वस्थ की परिभाषा
सम दोष: स्माग्नि सम धातु मल क्रिय:।
प्रसन्न आत्म इंद्रियः मनः स्वस्थ इत्यविधीयते ॥
आयुर्वेद के अनुसार जब पाचन अग्नि (जठराग्नि) संतुलित स्थिति में होती है; शारीरिक दोष (वात, पित्त और कफ) संतुलन में हैं, तीन अपशिष्ट उत्पाद (मूत्र, मल और पसीना) सामान्य रूप से उत्पन्न और निष्काषित हो जाते हैं, शारीरिक धातुएँ (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र/अर्तव) सामान्य रूप से कार्य कर रहे हैं, और मन, इंद्रियां और चेतना एक साथ मिलकर काम कर रहे हैं तो वह व्यक्ति स्वस्थ है। जब इन प्रणालियों का संतुलन गड़बड़ा जाता है, तो रोग (विकार) उत्पन्न होने कि प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
सीधे शब्दों में “जिस व्यक्ति के शारीरिक व् मानसिक दोष संतुलित हों, संतुलित पाचक अग्नि हो, धातु व मलों की गति सुचारु रूप से हो रही हो, तथा जिसकी इंद्रियाँ, आत्मा और मन प्रसन्न हों उसे स्वस्थ कहा जाता है।
WHO के द्वारा दी गई स्वास्थ्य की परिभाषा भी आयुर्वेद के समान ही है।
आयुर्वेद के आठ अंग: 8 Branches of Ayurveda in hindi
आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र के आठ अंग हैं, आयुर्वेद को अष्टांगआयुर्वेद भी कहते हैं।
- कायचिकित्सा (General Medicine)
- बालचिकित्सा या कौमारभृत्य (Obstetrics/pediatrics)
- ग्रह चिकित्सा (Psychiatry)
- शालाक्य चिकित्सा (ENT & Cephalic Disease)
- शल्य चिकित्सा (Surgery)
- विष चिकित्सा (Toxicology)
- रसायन तंत्र (Rejuvenation Therapy)
- वृष चिकित्सा (वाजीकरण) (Aphrodisiac Treatment)
आयुर्वेद का इतिहास, History of Ayurveda in Hindi
आयुर्वेद वैदिक चिकित्सा का सबसे प्राचीनतम विज्ञान है1Jaiswal YS, Williams LL. A glimpse of Ayurveda – The forgotten history and principles of Indian traditional medicine. J Tradit Complement Med. 2016;7(1):50-53. Published 2016 Feb 28. doi:10.1016/j.jtcme.2016.02.002, जो दीर्घायु कामना के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुआ आयुर्वेद को ई ० पू ० 4000 वर्ष से भी पुराना बताया गया है।
वेद चार हैं:-
- ऋग्वेद,
- यजुर्वेद,
- सामवेद
- और अथर्ववेद
जिसमें आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है। वेद जीवन के दर्शन का उपदेश देते हैं, अथर्ववेद में उपचार के सिद्धांत हैं, जिस पर आयुर्वेद आधारित है। आयुर्वेद पुण्यतम वेद होने के कारण इसे पंचम वेद भी कहा गया है।
आयुर्वेद का स्मरण सर्वप्रथम ब्रह्मा जी को हुआ था तथा यह ज्ञान उन्होने दक्षप्रजापति को दिया। दक्षप्रजापति ने अश्वनीकुमारों को पढ़ाया, अश्वनी कुमारों ने देवराज इंद्र को पढ़ाया तथा उन्होंने भारद्वाज को ज्ञान दिया तत्पश्चात भारद्वाज ने अत्रिपुत्र पुनर्वसु आत्रेय को पढ़ाया महर्षिआत्रेय ने आयुर्वेद का यह ज्ञान अपने 6 शिष्यों (अग्निवेश, भेल, जतुकर्ण, पाराशर, हारीत क्षारपाणि) को दिया जिन्होंने बाद में आयुर्वेद की विस्तार से रचना की ।
वर्तमान में उपलब्ध चरक संहिता वास्तव में आत्रेय के शिष्य अग्निवेश द्वारा लिखी गयी है। इसे बाद मे आचार्य चरक ने प्रतिसंस्कार किया जो बाद में चरक संहिता नाम से प्रचलित हुई और इससे भारत में कायचिकित्सा का विकास हुआ ।
वर्तमान में उपलब्ध सुश्रुत संहिता भगवान धन्वन्तरी के शिष्य आचार्य सुश्रुत द्वारा लिखी गयी है, जिसे सुश्रुत संहिता कहते हें, जिसने भारत में शल्य चिकित्सा का विकास किया।
आयुर्वेद को त्रिसूत्र भी कहते हैं। इसमें 3 सूत्रों में संपूर्ण आयुर्वेद का वर्णन किया गया है।
वह सूत्र हैं:
- हेतु (रोग के कारण) (Cause of disease)
- लिंग (रोग के लक्षण) (sign and symptoms)
- और औषध (Medicine)
आयुर्वेदिक उपचार हिंदी में प्राचीन पुस्तकें
आयुर्वेद का उपदेश दो ग्रंथों में किया गया है। वर्तमान में आयुर्वेद के दो प्रमुख ग्रंथ जिन्हें संहिताएँ कहते हैं।
- चरक संहिता (कायचिकित्सा प्रधान ग्रंथ/General Medicine)
- सुश्रुत संहिता (शल्यचिकित्सा प्रधान ग्रंथ/Surgery)
चरक संहिता (काल ई ० पू ० 1500 से 2000)
चरक संहिता कायचिकित्सा (General Medicine) प्रधान है जिसको महर्षि चरक द्वारा लिखा गया है। इसमें 8 स्थान तथा 120 अध्याय हैं, जो मूल रूप से संस्कृत भाषा में उपलब्ध है।
चरक संहिता के स्थान इस प्रकार हैं:
- सूत्र स्थान
- निदान स्थान
- विमान स्थान
- शरीर स्थान
- इंद्रिय स्थान
- चिकित्सा स्थान
- कल्प स्थान
- एवं सिद्ध स्थान
सुश्रुत संहिता (काल ई ० पू ० 1500 से 2000)
सुश्रुत संहिता शल्यचिकित्सा (Surgery) प्रधान ग्रंथ है जिसको आचार्य सुश्रुत द्वारा लिखा गया है। इसमें 6 स्थान तथा 120 अध्याय हैं 6 स्थान इस प्रकार हैं
- सूत्र स्थान
- निदान स्थान
- शरीर स्थान
- चिकित्सा स्थान
- कल्प स्थान
- उत्तर तंत्र
मुझे उम्मीद है, आयुर्वेद के बारे में यह लेख आपके लिए उपयोगी साबित होगा। इस विषय से संबंधित आपके सुझाव और प्रश्न के लिए, मुझे टिप्पणी अनुभाग में बताएं अगर आप इस जानकारी से संतुष्ट हें, तो लेख को शेयर जरूर करें ताकि दूसरों तक भी जानकारी पहुँच सके ।
References
- 1Jaiswal YS, Williams LL. A glimpse of Ayurveda – The forgotten history and principles of Indian traditional medicine. J Tradit Complement Med. 2016;7(1):50-53. Published 2016 Feb 28. doi:10.1016/j.jtcme.2016.02.002